जाती संस्कृति और समाजवाद | jaati sanskriti and samaajvad

By: स्वामी विवेकानंद - Swami Vivekanand


दो शब्द :

यह पाठ स्वामी विवेकानंद के 'जाति, संस्कृति और समाजवाद' पर विचारों का संकलन है। इसमें स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू जाति की सामाजिक व्यवस्था का विश्लेषण करते हुए उसके आदर्शों और पतन के कारणों पर चर्चा की है। उन्होंने बताया है कि हिन्दू जाति का एक ऐतिहासिक आदर्श था, जिसकी बुनियाद पर उसकी सामाजिक व्यवस्था बनी थी। परंतु आज की स्थिति में यह आदर्श कमजोर पड़ा है और जाति व्यवस्था में गिरावट आई है। स्वामी विवेकानंद ने यह भी बताया है कि समाजवाद का प्रेम करते हुए, उन्होंने यह चाहा कि इसका आधार आध्यात्मिक एकता हो। वे समाज में क्रांति के समर्थक थे, लेकिन उन्होंने इसे अहिंसक रूप में और अपनी संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता पर बल दिया। उनका मानना था कि हमें पश्चिमी विचारों का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए, बल्कि भारतीय आध्यात्मिकता और संस्कृति के साथ पाश्चात्य सामाजिक उन्नति के विचारों का समन्वय करना चाहिए। स्वामी विवेकानंद ने वर्ण व्यवस्था को भी समझाया, जिसमें उन्होंने जातियों के बीच के संबंधों को और उनकी सामाजिक भूमिका को विश्लेषित किया। उन्होंने यह भी बताया कि भारत की सामाजिक व्यवस्था का आधार जाति-नियम है, जिसमें व्यक्ति को अपनी जाति के नियमों का पालन करना होता है। इस प्रकार, स्वामी विवेकानंद ने भारतीय समाज के विकास के लिए एक नई दृष्टि प्रस्तुत की, जो आध्यात्मिकता और सामाजिकता का संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता पर जोर देती है। वे चाहते थे कि समाज में समता की स्थापना हो, लेकिन यह समता केवल आध्यात्मिकता और संस्कृति के माध्यम से ही संभव है। इस पाठ का उद्देश्य स्वामी विवेकानंद के विचारों के माध्यम से हिन्दू समाज के अंदर की जटिलताओं को समझना और उनके सुधार के उपायों पर ध्यान केंद्रित करना है।


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