धरती धन न अपना | Dharati Dhan Na Apana

By: जगदीशचन्द्र माथुर - Jagdishchandra Mathur
धरती धन न अपना | Dharati Dhan Na Apana by


दो शब्द :

यह पाठ "घरती धन न अपना" शीर्षक के अंतर्गत एक उपन्यास का सारांश है, जिसमें लेखक अपनी किशोरावस्था की यादों को साझा करते हैं। लेखक का अनुभव उनके ननिहाल के गांव, रल्हून (पंजाब) में बिताए गए समय से जुड़ा है, जहाँ उन्होंने एक हरिजन परिवार के जीवन को निकट से देखा। लेखक ने अपने किशोर मन की जिज्ञासा और विद्रोह की भावना को व्यक्त किया है, जब उन्होंने भेदभाव और सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ने का प्रयास किया। उन्हें यह अनुभव हुआ कि गांव में हरिजनों के प्रति भेदभाव और उनकी जकड़न बढ़ती जा रही थी, जिससे उन्हें गहरी वेदना हुई। लेखक ने इस सामाजिक दुर्वस्था के आर्थिक कारणों को भी समझा और इसे अपने उपन्यास का मुख्य विषय बनाया। कहानी में काली नामक पात्र का गाँव लौटना, उसकी चिंताएँ और यादें भी शामिल हैं। वह अपने बचपन की यादों में खो जाता है, जब वह गाँव की ओर बढ़ता है। काली के मन में अपनी चाची के बारे में भी चिंता है, जिससे उसकी भावनाएँ और भी गहरी हो जाती हैं। कहानी में काली का गाँव पहुँचने, वहां की स्थिति का अवलोकन करने और अपनी चाची से मिलने की प्रक्रिया का वर्णन है। जब वह अपनी चाची से मिलता है, तो उसके मन में खुशी और आशा का संचार होता है, लेकिन साथ ही गाँव की बदली हुई परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ता है। इस पाठ में सामाजिक विषमताओं, जातिगत भेदभाव, और व्यक्तिगत यादों के माध्यम से एक गहरी भावनात्मक कहानी प्रस्तुत की गई है, जो पाठक को सोचने पर मजबूर करती है। लेखक ने अपने अनुभवों के माध्यम से भारतीय समाज की जटिलताओं और दर्दनाक सच्चाइयों को उजागर किया है।


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