वैदिक सर्पा विद्या | Vaidika sarpa vidya

By: श्रीपाद दामोदर सातवल्ठेकर - Shreepad Damodar Satvelthekar


दो शब्द :

यह पाठ वेदों में वर्णित "सर्प-विद्या" पर आधारित है, जिसे प्राचीन काल में एक महत्वपूर्ण विद्या माना जाता था। इसमें बताया गया है कि इस विद्या का उल्लेख छांदोग्य उपनिषद में भी किया गया है, और यह विद्या अब लगभग नष्ट हो चुकी है। पाठक को यह समझाया गया है कि वेदों के निरंतर अध्ययन से इस विद्या को पुनः जीवित किया जा सकता है। सर्पों के विभिन्न नामों और जातियों का वर्णन किया गया है। "सर्प" शब्द की व्युत्पत्ति और इसके अर्थ पर भी चर्चा की गई है। इसके अलावा, सर्पों की विभिन्न जातियों जैसे "नाग" और उनके विष की प्रकृति का भी विवरण दिया गया है। पाठ में यह उल्लेख किया गया है कि भारत में हर साल हजारों लोग सर्पदंश से मरते हैं, जिससे इस विद्या का महत्व और बढ़ जाता है। सर्पों की विशेषताओं, उनके विष के प्रभाव और उनके नामों के अध्ययन से यह उम्मीद जताई गई है कि पाठक इस विद्या के विकास में मदद कर सकेंगे। अंत में, पाठक से अपील की गई है कि वे इस विषय पर गंभीरता से विचार करें ताकि "सर्प-विद्या" का ज्ञान पुनः स्थापित किया जा सके।


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