भारतीय कला [ प्रारंभिक युग से तीसरी शती तक] | Bhartiya kala [prarambhik yug se tisri shati tak ]

By: श्री पृथ्वी कुमार अग्रवाल - Shree Prathvee kumari Agrawal


दो शब्द :

इस पाठ में भारतीय कला का एक व्यापक अवलोकन प्रस्तुत किया गया है, जिसमें प्रारंभिक युग से लेकर तीसरी शती तक की कला और शिल्प का वर्णन किया गया है। लेखक वापुदेवशरण अग्रवाल ने इस ग्रंथ में भारतीय कला की समृद्धि, उसके ऐतिहासिक विकास और सांस्कृतिक महत्व पर ध्यान केंद्रित किया है। भारतीय कला के विभिन्न पहलुओं, जैसे शिल्प, मूर्तियाँ, चित्र और उनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का विश्लेषण किया गया है। लेखक ने भारतीय कला के अध्ययन में नए दृष्टिकोण की आवश्यकता महसूस की है, जिसमें स्थापत्य और वास्तु को एक साथ देखा जाए। उन्होंने यह भी बताया कि कला का महत्व केवल बाहरी सुंदरता में नहीं है, बल्कि इसके भीतर गहरे अर्थ और सांस्कृतिक संदेश छिपे होते हैं। पाठ में प्राग ऐतिहासिक युग से लेकर महाजनपद युग तक की कला का विश्लेषण किया गया है। प्राग ऐतिहासिक मानव की कला, सिन्धुघाटी की कला, वैदिक कला, महाजनपद युग की कला, और विभिन्न शिल्प तथा प्रतीकों का विवरण दिया गया है। लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि कला का उद्देश्य केवल सौंदर्य बढ़ाना नहीं है, बल्कि यह मानव की सोच और संस्कृति का गहरा परिचायक है। कला के प्रतीकों और अलंकरणों के विकास पर भी ध्यान दिया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि भारतीय कला में समय के साथ बदलाव आया है, लेकिन उसकी मूल भावना और सांस्कृतिक पहचान बरकरार रही है। इसके अलावा, लेखक ने विभिन्न युगों में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों का भी उल्लेख किया है, जिससे पाठक कला के संदर्भ में और अधिक समझ सकें। इस प्रकार, यह पाठ भारतीय कला के विकास, उसके सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों, और उसकी विभिन्न धाराओं का समेकित अध्ययन प्रस्तुत करता है।


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