लोक साहित्य की भूमिका | Lok-Sahitya ki Bhumika

By: कृष्णदेव उपाध्याय - Krishnadev Upadhyay
लोक साहित्य की भूमिका | Lok-Sahitya ki Bhumika by


दो शब्द :

लोक-साहित्य की परंपरा मानव जाति के उतने ही प्राचीन है जितनी मानवता स्वयं। इसे मौखिक रूप में transmit किया गया है, जिससे प्राचीन सामग्री सुरक्षित नहीं रह सकी। यूरोप और अमेरिका में उन्नीसवीं सदी में इस पर ध्यान दिया गया और भारत में भी वर्तमान शताब्दी में विद्वानों का ध्यान आकर्षित हुआ। हिंदी में लोक साहित्य का अध्ययन पं. रामनरेश त्रिपाठी के आम-गीतों के संकलन से प्रारंभ हुआ। भोजपुरी लोक साहित्य पर भरी कृष्णदेव उपाध्याय ने विस्तृत अध्ययन किया, जो अब एक महत्वपूर्ण ग्रंथ बन चुका है। इस पुस्तक में लोक साहित्य के विभिन्न रूपों का विवेचन किया गया है, जैसे लोकगीत, लोककथा, और लोकोक्तियाँ। लेखक ने उपयोगी परिशिष्ट भी दिए हैं, जिनमें हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध लोक साहित्य की सामग्री का संग्रह किया गया है। प्रयाग विश्वविद्यालय ने इसे हिंदी के एम.ए. पाठ्यक्रम में शामिल किया है, जिससे यह विषय और भी प्रासंगिक हो गया है। लोक-साहित्य जन-संस्कृति का सजीव चित्रण प्रस्तुत करता है, जो इसे अन्य साहित्यिक रूपों से अलग बनाता है। इसका अध्ययन अब तेजी से हो रहा है, और कई विश्वविद्यालयों में शोध कार्य हो रहा है। पुस्तक में लोक साहित्य का वर्गीकरण, विशेषताएँ, और लोक-कथाओं के तत्वों का ज्ञान दिया गया है। इस ग्रंथ का उद्देश्य लोक साहित्य के सिद्धांतों को स्पष्ट करना और शोधकर्ताओं के लिए मार्गदर्शन प्रदान करना है। यह क्षेत्र अब जागरूकता की ओर बढ़ रहा है, और लेखक के इस प्रयास की सराहना की जा रही है। अंततः, लोक साहित्य का अध्ययन भविष्य में और अधिक विस्तार की संभावना रखता है।


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