दैनिक जीवन और मनोविज्ञान | Dainik Jeevan Aur Manovigyan

By: इलाचन्द्र जोशी - Elachandra Joshi


दो शब्द :

इस पाठ में मानव के स्वाभाविक असमर्थता और अपूर्णता की भावना का विश्लेषण किया गया है। लेखक ने बताया है कि मनुष्य अपने विकास के दौरान अपनी असमर्थता और अपूर्णता को महसूस करता है, जो उसके भीतर असंतोष, दुख और चिंता के बीज बो देता है। यह असंतोष उस समय उत्पन्न होता है जब मनुष्य अपने माता-पिता या अन्य लोगों को उन कार्यों में सक्षम देखता है, जिन्हें वह स्वयं नहीं कर सकता। लेखक ने यह भी उल्लेख किया है कि जब किसी व्यक्ति की एक इंद्रिय कमजोर होती है, तो अन्य इंद्रियाँ अधिक विकसित होकर उसकी कमी को पूरा करती हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी की दृष्टि कमजोर हो जाती है, तो उसकी श्रवण शक्ति बढ़ जाती है। हालांकि, यह स्थिति तब बदल जाती है जब बच्चे को विपरीत वातावरण या अत्यधिक लाड़-प्यार मिलता है, जिससे उसकी विकास प्रक्रिया विकृत हो जाती है। पाठ में यह भी बताया गया है कि मानव-शिशु की असहायता की अवधि अन्य जीवों की तुलना में अधिक होती है, और यह असहायता तब तक बनी रहती है जब तक वह स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर लेता। इस दौरान, वह अपनी हीनता की भावना से ग्रसित हो जाता है, जो उसके जीवन में चिंता और भय का कारण बनती है। अंत में, लेखक यह निष्कर्ष निकालता है कि मनुष्य अपनी असमर्थता और अपूर्णता का अनुभव करते हुए अपने जीवन का लक्ष्य और मार्ग निर्धारित करता है। यह लक्ष्य बहुत छोटी अवस्था में ही निर्धारित हो जाता है, जिसका प्रभाव उसके पूरे जीवन पर पड़ता है। इसलिए, माता-पिता को बच्चों के लालन-पालन में सतर्क रहने की सलाह दी जाती है, ताकि बच्चों का विकास सही दिशा में हो।


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