घनानंद-कबित्त ( भाष्यंदुशेखर ) | Ghananand-kabitt (bhashyandusekhar)

By: विश्वनाथ प्रसाद मिश्र - Vishwanath Prasad Mishra
घनानंद-कबित्त ( भाष्यंदुशेखर ) | Ghananand-kabitt (bhashyandusekhar) by


दो शब्द :

इस पाठ में लेखक ने 'धनानंद-कावित्त' का विस्तृत भाष्य प्रस्तुत किया है, जिसमें द्वितीय शतक के काव्य का विश्लेषण किया गया है। लेखक ने पहले ही 'धनानंद कबित्त' का भाष्य लिखा था और अब उन्होंने द्वितीय शतक और तृतीय शतक के काव्य को भी प्रस्तुत किया है। उनका उद्देश्य पाठकों की जिज्ञासा को तृप्त करना और काव्य की सूक्ष्म व्यंजना को उजागर करना है। लेखक ने इस बात पर जोर दिया है कि काव्य में स्वरूप, स्वभाव और मनोवृत्ति तीन तत्व होते हैं। उन्होंने यह भी बताया है कि काव्य में वर्णन की प्रक्रिया और विशेषताओं का महत्व है। वे यह मानते हैं कि काव्य का उद्देश्य किसी वस्तु या व्यक्ति के अद्वितीय स्वरूप और स्वभाव को प्रस्तुत करना है, जिसे साधारण व्यक्ति नहीं देख पाता। लेखक ने काव्य में 'स्वभावोक्ति' और 'अलंकार' की परिभाषा पर भी चर्चा की है, यह बताते हुए कि कैसे स्वभावोक्ति को अलंकार के रूप में देखा जा सकता है। उन्होंने काव्य में विशेषताओं और व्यक्तिगत अनुभवों के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता पर बल दिया है। इसके साथ ही, उन्होंने यह भी बताया है कि व्यक्तिगत जीवन की अभिव्यक्ति को साहित्य में सामान्यीकृत रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए, ताकि वह सामाजिक जीवन से जुड़ सके। कुल मिलाकर, लेखक ने काव्य के तत्वों, उनकी विशेषताओं और उनके सामाजिक संदर्भ को समझाने का प्रयास किया है, ताकि पाठक काव्य के गूढ़ अर्थों को समझ सकें और साहित्य को जीवन के साथ जोड़ सकें।


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