मैं मिर्ज़ा तन साहिबा | Main Mirza Tan Sahibaan

By: अमृता प्रीतम - Amrita Pritam
मैं मिर्ज़ा तन साहिबा | Main Mirza Tan Sahibaan by


दो शब्द :

पाठ में प्रेम को ईश्वर की तरह एक अद्वितीय अनुभव के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें लेखक ने साहित्य को एक जीवित काया के रूप में देखा है, जो विभिन्न रचनाकारों के आने से जीवंत होती है। कहानीकार, कवि और ऋषि का उल्लेख किया गया है, जो अपनी कला के माध्यम से इस काया को निखारते हैं। जब प्रेम और प्रार्थना के आंसू उस काया की आंखों में आते हैं, तब इसे रजनीश और ओशो के रूप में व्यक्त किया गया है। लेखक ने अपने बचपन का वर्णन करते हुए बताया है कि कैसे उनके पिता विद्वान थे और उनका घर किताबों से भरा हुआ था। उनके पिता की रचनाएं और ऋषियों और अप्सराओं की कहानियाँ उनके जीवन में गहराई से बैठी थीं, जिससे उन्हें अपने माता-पिता के संबंधों का अहसास हुआ। लेखक ने विभिन्न साहित्यिक कार्यों और शायरों के प्रभाव का वर्णन किया है, जिनसे उन्हें गहरे अनुभव मिले। उन्होंने रजनीश के विचारों को साझा करते हुए बताया कि कैसे उन्होंने अपने समय के देवताओं की साजिशों को पहचाना। लेखक ने चेतना के विकास और धर्म की यात्रा की बात की है, यह बताते हुए कि कैसे मानवता ने अपनी पहचान खो दी है और एक बाहरी शक्ति को स्थापित किया है। धर्म को आंतरिक यात्रा के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो हमें अपनी चेतना और आत्मा की गहराई में ले जाती है। आखिर में, लेखक ने समाज के वर्तमान हालात पर चिंता व्यक्त की है, जो विभिन्न मजहबों के बीच की खाई को बढ़ावा देती है। उन्होंने प्रेम और एकता की आवश्यकता पर जोर दिया है, यह मानते हुए कि सच्चा धर्म व्यक्ति के भीतर की यात्रा है।


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