अष्टावक्र- गीता | Ashtavakra -Geeta

- श्रेणी: ग्रन्थ / granth संस्कृत /sanskrit साहित्य / Literature
- लेखक: बाबू जालिम सिंह - babu jalim singh रायबहादुर बाबू जालिमसिंह - Rai Bahadur Babu Zalim Singh
- पृष्ठ : 405
- साइज: 19 MB
- वर्ष: 1971
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दो शब्द :
यह पाठ अमन कल्न्ल्लेल द्वारा लिखा गया है, जिसमें आत्मज्ञान और वेदांत के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। लेखक अपनी आत्मिक यात्रा के अनुभव साझा करते हैं, जिसमें उन्होंने सत्य और ज्ञान की खोज की। लेखक ने बताया है कि जब वे स्कूल में पढ़ाई कर रहे थे, तब से ही उनके मन में भगवत् आराधना और सत्य मार्ग पर चलने की इच्छा जागृत हुई। उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास की रामायण और अन्य संतों की कथाएँ पढ़ीं, जिससे उन्हें आध्यात्मिक प्रेरणा मिली। लखनऊ में रहते हुए, उन्हें पंडित श्री यमुनाशंकर से वेदांत की शिक्षा मिली, जिसने उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ लाया। अष्टावक्रजी और राजा जनक की चर्चा करते हुए, लेखक ने आत्मा और शरीर के भेद को स्पष्ट किया है। अष्टावक्रजी ने राजा को समझाया कि आत्मा निरवयव है जबकि शरीर अनित्य है। राजा जनक ने ऋषि से ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रश्न किए, जिससे अज्ञान का नाश और ज्ञान का उदय हुआ। पाठ में यह भी बताया गया है कि मुक्तिदाता की खोज में व्यक्ति को विषयों का त्याग करना आवश्यक है। विषयों के प्रति आसक्ति को छोड़कर ही वास्तविक ज्ञान और मुक्ति की प्राप्ति होती है। अंततः, यह पाठ आत्मज्ञान, वेदांत और साधना की गहराईयों में जाने के लिए एक मार्गदर्शिका के रूप में कार्य करता है, जिसमें ज्ञान के विभिन्न पहलुओं को समझाया गया है।
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